तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥
तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग है ।
क्रिया योग के तीन अंग हैं – तप , स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान । तप से अर्थ है – मन , कर्म एवं वचन से स्वधर्म का सहर्ष पालन करना । अपने धर्म के पालन में कई प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते है । इन कष्टकारी परिस्थितियों में भी अपने धर्म का पालन करना तप है । स्वाध्याय से अर्थ है – स्वयं पढ्ना । आप्त वचनों का अध्ययन करना एवं उसको ध्यान में रखना स्वाध्याय हैं । स्वाध्याय से सही ज्ञान होता है । ईश्वर प्रणिधान से अर्थ है – ईश्वर के प्रति अपने प्राणों को आधीन कर देना । इसके अंतर्गत ईश्वर के प्रति प्रगाढ आस्था उत्पन्न होती है ।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥
यह समाधिभाव देता है एवं क्लेश को कमजोर बना देता है ।
योग का लक्ष्य क्लेष को समाप्त करना होता है । क्रिया योग क्लेश को कमजोर कर देता है । यह समाधि का भी भाव उत्पन्न करता है । समाधि में चित्त की वृत्तियाँ कम होने लगती हैं ।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३ ॥
अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष एवं अभिनिवेश – ये क्लेश हैं ।
यहाँ पर पाँच प्रकार के क्लेश बताये गये हैं – (1) अविद्या से अर्थ अज्ञान से है । इसमें ज्ञान सही नहीं रहता । (2) अस्मिता से अर्थ अपनेआप से ज्यादा लगाव का होना है । यह अहंकार की भावना लाता है । (3) राग का अर्थ है वाह्य वस्तुओं से ज्यादा लगाव का होना । राग से मोह की भावना उत्पन्न होती है । (4) द्वेष राग का विपरीत है । द्वेष में घृणा की भावना उत्पन्न होती है । (5) अभिनिवेश का अर्थ है – अनुभवों को संचित रखना । पुराने अनुभवों से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव में आकर सही रुप न देखने पर , अविद्या क्लेश होता है ।
अविद्या क्षेत्रम् उत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ ४ ॥
अविद्या का क्षेत्र – प्रसुप्त , तनु , विच्छिन्न एवं उदार होता है । अविद्या प्रसुप्त होता है । प्रसुप्त से अर्थ है वह सोया हुआ है , और भविष्य में पुनः उत्पन्न हो सकता है । यह तनु भी होता है । तनु से अर्थ कमजोर से है । क्रियायोग से अविद्यादि क्लेश कमजोर हो जाते हैं । यह विच्छिन्न भी होता है । विच्छिन्न से अर्थ है – बिखरा हुआ । ये क्लेश अन्य क्लेशों के आने पर तितर-बितर जो जाते हैं , परंतु फिर भी चित्त में वर्तमान रहते हैं । उदार से अर्थ है वर्तमान होना । उदार अविद्यादि वर्तमान में सक्रिय रहते हैं ।
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ ५ ॥
इसमें अनित्य , अशुचि , दुख एवं अनात्म में नित्य , शुचि , सुख एवं आत्म दिखता है । अविद्या का अर्थ है – सत्य के स्थान पर असत्य को देखना । जो अनित्य है , उसको नित्य समझना । अर्थात जो समाप्त हो जावे , ऐसा समझना कि वो कभी समाप्त ही न होगी । जो अपवित्र हो , उसको पवित्र समझना भी अविद्या है । दुख को सुख समझना भी अविद्या है । ऐसे में व्यक्ति दुख यह सोचकर उत्पन्न करते रहता है कि उसे सुख प्राप्त हो रहा है या सुख प्राप्त होगा । जो आत्मा को न भाये , उसे आत्मभाव में समझ लेना अविद्या है ।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ ६ ॥
अस्मिता दृग्दर्शन की शक्ति को एकात्मता के समान कर देता है ।
अस्मिता से अर्थ मन एवं अहंकार से है । यह व्यक्ति में आत्मता का भाव उत्पन्न करता है । इसमें मन में अहंकार पैदा होता है और व्यक्ति अपने आप को कर्ता समझने लगता है । यह भाव दृग्दर्शन को ढंक लेता है । दृग्दर्शन से अर्थ पुरूष के दर्शन से है । अस्मिता एक प्रकार का क्लेश है । इसमें व्यक्ति अपने देह से अतिशय प्रेम करने लगता है , और यह मोह उसे ईश्वर का सही रुप नहीं देखने देता ।
सुखानुशयी रागः ॥ ७ ॥
राग सुख का अनुशयी है ।
राग सुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से सुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति मोह पैदा हो जाता है । अत्यधिक मोह से राग होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।
दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥
द्वेष दुख का अनुशयी है ।
द्वेष दुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से दुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति घृणा की भावना हो जाती है । इस से द्वेष होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढो भिनिवेशः ॥ ९ ॥
अभिनिवेश अपने रस में स्थिर होता है, और विद्वानो में भी आरुढ है ।
अभिनिवेश से अर्थ व्यक्तिगत लगाव से चिपटना है । ऐसा विद्वानो में भी होता है । ऐसा लगाव पुराने अनुभवों से उत्पन्न होता है । ये अनुभव संस्कार बनकर रहते हैं ।
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १० ॥
सूक्ष्म रुप में उनकी उत्पत्ति समझने पर वो समाप्त हो जाती हैं ।
अभिनिवेश भाव का प्रसव अर्थात उत्पत्ति संस्कारों से होती है । पहले सूक्ष्म रुप से यह देखा जाना चाहिये कि ये विचार कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं । फिर उनकी उत्पत्ति के भाव को जड से निकाल देने पर अभिनिवेश संस्कार समाप्त हो जाते हैं ।