योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र २१ – २८ ।

द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥ २० ॥

द्र्ष्टा शुद्ध दृशिमात्र है , परंतु प्रत्यय के अनुरुप दिखता है ।

द्र्ष्टा दृष्टि है । दृष्टि का अर्थ है जो दिखायी दे । यहाँ इसका अर्थ सम्पूर्ण इन्द्रियों से होने वाले अनुभव से है । द्र्ष्टा शुद्ध दृष्टि देखने में सक्षम है । परंतु, जो दिखायी देता है , वह प्रत्यय के अनुरूप है । प्रत्यय से अर्थ दृष्टि के द्वारा मन में उभरने वाले विचारों से है । यह प्रत्यय संस्कारों से बनता है ।

तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २१ ॥

उस दृष्य का रुप उस द्र्ष्टा के लिये है ।

द्र्ष्टा जो दृष्य का अनुभव करता है , वह प्रत्यय एकमात्र उसके लिये ही है । विभिन्न द्र्ष्टा समान दृष्य को अपने प्रत्यय के अनुसार विभिन्न तरीके से देखते हैं । अत: दृष्य का रुप उस द्रष्टा के लिये ही है । दृष्य एक तरह से द्रष्टा को उसके संस्कारों को प्रकट करता है ।

कृतार्थं प्रति नष्टम् अप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२ ॥

अपना अर्थ पूरा कर दृष्य नष्ट हो जाता है , परंतु अन्य साधारण दृष्टि अनष्ट रहते हैं ।

जैसा पिछ्ले सूत्र में कहा गया है , दृष्य द्र्ष्टा के लिये ही रहते हैं । जब इनका अर्थ सिद्ध हो जाता है , तो ये स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं । अन्य साधारण द्रष्टाओं के लिये ये दृष्य वर्तमान रह सकते हैं ।

स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥ २३ ॥

स्वरुप की उपलब्धि का कारण स्व एवं स्वामी की शक्ति का संयोग है ।

यहाँ पर स्व का अर्थ प्रक़ृति से है । स्वामी का अर्थ पुरुष से है । पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से स्वरुप की उपलब्धि होती है । संयोग से पुरुष एवं प्रकृति का अर्थ करना मुश्किल हो जाता है । इसी कारण से दृष्य द्रष्टा को दिखायी देते हैं ।

तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥

यह अविद्या के कारण है ।

अविद्या , जो एक प्रकार का क्लेश है , इस संयोग को उत्पन्न करता है । अविद्या के समाप्त हो जाने पर द्र्ष्टा के दृष्य समाप्त होने लगते हैं ।

तदभावात् संयोगाभावो हानं । तद्दृशेः कैवल्यम् ॥ २५ ॥

उसके अभाव से संयोग का भाव समाप्त हो जाता है । वही कैवल्य का देखना है ।

अविद्या के समाप्त हो जाने पर संयोग का भाव भी समाप्त होने लगता है । उस समय कैवल्य होता है । कैवल्य में प्रकृति पुरुष में स्थिर हो जाती है ।

विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥

अविप्लव विवेकख्याति इसको समाप्त करने के उपाय हैं ।

अविप्लव से यहाँ निरंतर का अर्थ बनता है । विवेक से सम्यक दृष्य देखने की क्षमता उत्पन्न होती है । विवेकख्याति का अर्थ है , देखने में विवेक का प्रयोग करना । अविप्लव विवेकख्याति से संयोग समाप्त होने लगता है , और पुरुष की कैवल्य में स्थिरता हो जाती है ।

तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥

प्रज्ञा की भूमि इन सात प्रकार के प्रांतों में है । प्रज्ञा विवेकपूर्ण बुद्धि है । जब विवेक उत्पन्न होने लगता है , तो बुद्धि मानसिक एवं शारीरिक भावों को सूक्ष्म तरीके से देखना शुरु कर देता है । यह प्रज्ञा है । प्रज्ञा सात प्रकार के प्रांतों में लागू होता है । इन सूत्रों में इसकी व्याख्या नहीं है । इसका अर्थ – मन , अहंकार एवं पाँच तन्मात्राओं – रुप , शब्द , रस , स्पर्श एवं राग – हो सकता है । प्रज्ञा इनको देखती है , एवं इनसे उत्पन्न होने वाले क्लिष्ट वृत्तियों को कम करती है , और अंततोगत्वा इनको समाप्त कर देती है ।

योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः ॥ २८ ॥

योग के अंगों के अनुष्ठान से उपजी ज्ञान की दीप्ति विवेक और दीखता है ।

विवेक प्राप्त करने के लिये योगांगों का अनुष्ठान करना चाहिये । योगाभ्यास से ज्ञान जागृत होता है । इस ज्ञान से सूक्ष्म भाव और स्पष्ट दिखने लगते है । इससे विवेक भाव और पुष्ट होता है । अगले सूत्र में इन योगों के अंगों की व्यख्या की गयी है ।

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