योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र ५० – ५५ ।

बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ॥ ५० ॥

यह वाह्य , अभ्यंतर और स्तंभवृत्ति , स्थान , समय एवं संख्या , दीर्घ एवं सूक्ष्म की दृष्टि का होता है ।

यहाँ तीन प्रकार के प्राणायाम का वर्णन है – वाह्य , अभ्यंतर एवं स्तंभवृत्ति । प्राण में तीन प्रकार की वृत्तियाँ है – (1) वाह्य अर्थात जो बाहर के वातावरण की ओर उन्मुख हो (2) अभ्यंतर अर्थात अंतर्मन की ओर उन्मुख होना एवं (3) स्तंभ अर्थात प्राण जहाँ हो वहाँ स्थिर रखना । प्राण का संबंध श्वास एवं प्रश्वास से है । सांस को बाहर छोडने से प्राण वाह्य वृत्ति को ग्रहण करता है । अंदर साँस लेने पर प्राण अभ्यंतर होता है । स्तंभ वृत्ति में , सांस छोडकर या अंदर भरकर वहीं रोका जाता है । इससे प्राण स्थिर होता है । ये प्रक्रियायें समय एवं संख्या के अनुसार लंबी और छोटी हो सकती है । प्राणायम आजकल अत्यंत लोकप्रिय है । जैसे कि कपालभाति प्राणायाम को लिया जाये । इसमें साँस अंदर सामान्य तरीके से लिया जाता है । प्रश्वास सूक्ष्म समय में होता है , अर्थात जोर से किया जाता है । यह सामान्य समय का अभ्यंतर एवं सूक्ष्म समय का वाह्य प्राणायाम है । इसका प्रभाव स्थान एवं संख्या के अनुसार होता है । आप देख सकते हैं कि पतंजलि मुनि ने यहाँ श्वास-प्रश्वास एवं प्राण के संबंध को स्थापित कर , प्राणायाम के मूलभूत तरीके को स्थापित किया है ।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥ ५१ ॥

वाह्य एवं अंदर के विषयों का त्याग करने वाला चतुर्थ प्रकार है ।

श्वास में वाह्य एवं अभ्यंतर का भेद होता है । पिछले दो सूत्रों में श्वास में वाह्य , अभ्यंतर एवं स्तंभ की महत्ता बतायी गयी है । इन सूत्रों में श्वास के इन विभिन्न प्रक्रियाओं पर जोर देकर प्राणायाम के विभिन्न आयामों का वर्णन है । अब यदि यह श्वास प्रक्रिया इतनी सहज हो कि वाह्याभ्यंतर में किसी विषय का आभास न हो , वह चतुर्थ प्रकार का प्राणायाम है । इस प्रक्रिया में श्वास लेने एवं छोडने पर मन में विषयों का आभास नहीं होता ।

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥ ५२ ॥

तब प्रकाश के उपर का आवरण क्षीण हो जाता है ।

तत्पश्चात , प्रकाश अर्थात अंतर्मन का सही रुप , के उपर से चादर हट जाती है । जैसे बादल सूर्य को आच्छादित कर , प्रकाश को रोक देते हैं , वैसे ही वृत्तियाँ पुरूष के सही रुप को ढक कर रखती है । पतंज़लि मुनि के अनुसार सहज प्राणायाम को प्राप्त कर लेने पर , वृत्तियाँ क्षीण होने लगती हैं एवं पुरूष रुपी प्रकाश का आभास होने लगता है ।

धारणासु च योग्यता मनसः ॥ ५३ ॥

और धारणा में मन की योग्यता हो जाती है ।

अब योगी को एक जगह मन लगाने की योग्यता आ जाती है ।

स्वस्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥ ५४ ॥

अपने विषयों के असम्प्रयोग से चित्त के स्वरुप के अनुरुप इन्द्रियों का हो जाना प्रत्याहार है । असम्प्रयोग का अर्थ है , अलग करना । इन्द्रियाँ विषयों से जुडी रहती हैं , जिसके फलस्वरुप चित्त का सही आभास नहीं हो पाता है । प्राणायाम से विषय एवं मन के अनुभव अलग होने लगते हैं , तत्पश्चात अंतर्मन बाहरी वस्तुओं एवं अनुभवों से विरक्त होने लगता है । तब इन्द्रियाँ चित्त में विकार पैदा करने की बजाय , चित्त के अनुरुप अनुभव करने लगती है । परम पुरूष का अनुभव होने लगता है ।

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥ ५५ ॥

उससे इन्द्रियों की परम वश्यता हो जाती है ।

एक बार इन्द्रियाँ के अंतर्मन में स्थिर हो जाने पर वाह्य विषय इसे प्रभावित नहीं करते । योगी का इन्द्रियों पर पूर्ण वश हो जाता है ।

इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे द्वितीयः साधनपादः ।

यह पतंजलि विरचित योगसूत्र के द्वितीय साधनपाद है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः। सूत्र ४१ – ४९ ।

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥ ४१ ॥

इसके अलावा , सत्त्व , शुद्धि , सौमनस्य , एकाग्रता , इन्द्रियों पर विजय एवं आत्मदर्शन की योग्यता भी आती है ।

शौच से और भी कई योग्यताओं की प्राप्ति होती है । इससे सत्व अर्थात सत्यभाव उत्पन्न होने लगता है । शुद्धि से तात्पर्य शुद्ध अर्थात साफ अस्तित्व से है । सौमनस्य में विपरीत परिस्थितियों में भी शांत भाव बना रहता है । एकाग्र होने से जिस कर्म का सम्पादन हो रहा हो , सिर्फ उसी पर मन लगा रहता है । अपने अंगों से वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर इन्द्रियाँ देह को प्रभावित करने में असफल हो जाती हैं, और अंततः इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाता है । इससे चित्त शांत होने लगता है , और आत्मदर्शन की योग्यता आती है ।

संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥

संतोष से अत्युत्तम सुख का लाभ होता है ।

संतोष से जितना हो , उसी में सुखपूर्वक रहने की इच्छा होती है । और विषयों पर मन नहीं भागता , और इससे अनुत्तम सुख का लाभ होता है ।

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः ॥ ४३ ॥

तप से अशुद्धि कम होता है , जिससे देह और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है ।

जैसे सोने को गर्म करने पर उसमें से उसकी अशुद्धि निकल जाती है , उसी प्रकार तप देह एवं मन के विकारों को समाप्त कर देता है । तप में विपरीत परिस्थितियों में भी अपने धर्म का अनुशरण किया जाता है । इस धर्म का जाति से कोइ संबंध नहीं है । यह धर्म आपका व्यवसाय , नौकरी , गृहकार्य , पढाई , पुत्र धर्म , पति धर्म , माता धर्म , पिता धर्म , कुछ भी हो सकता है । स्वानुशासन से इनका पालन करना तप है । इससे अशुद्धि कम हो जाती है , एवं देह एवं इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है । यह तप एक प्रकार का कर्म योग है ।

स्वाध्यायाद् इष्टदेवतासंप्रयोगः ॥ ४४ ॥

स्वाध्याय से इष्ट देवता की प्राप्ति हो जाती है ।

स्वाध्याय में स्वयं आप्त अथवा अन्य धर्मानुकूल ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है । इससे जो ईष्ट अर्थात जिसे प्राप्ति की इच्छा हो , वह मिलने लगता है । यह एक प्रकार का ज्ञान योग है । स्वाध्याय से ज्ञान उत्पन्न होने लगता है , जिससे फिर इष्ट देवता की प्राप्ति होने लगती है ।

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥ ४५ ॥

ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है ।

ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है , अपने प्राणों को ईश्वर में अर्पित कर देना । यह भक्तियोग का मार्ग है । इससे समाधि की भी सिद्धि हो सकती है , क्यों कि , करुणामय ईश्वर , प्राणों के अर्पित होने पर, मन को निर्मल करने में सहायक होते हैं । इससे चित्त शांत होने लगता है एवं समाधि की सिद्धि होने लगती है ।

स्थिरसुखम् आसनम् ॥ ४६ ॥

सुखपूर्वक स्थिर होना आसन है |

आसन में देह का स्थिर होना जरुरी होता है । इस स्थिति में देह को सुख होना चाहिये । यहाँ पर किसी विशेष आसन की बात नहीं की गयी है । परंतु अगर लंबे समय तक सुखपूर्वक स्थिर होना हो , तो यह आवश्यक है कि रीढ की हड्डी सीधी हो । ऐसे आसन भी हैं , जो देह को सुदृढ बनाते है , एवं हठयोग में उनका विशेष वर्णन है ।

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥ ४७ ॥

इसमें प्रयत्न में शिथिलता से अनंत की समापत्ति हो जाती है ।

आसन में बैठने पर प्रयत्न नहीं होना चाहिये । ऐसे आसन में बैठने पर फिर प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है । इससे शरीर शिथिल होने लगता है, तत्पश्चात अनंत का आभास होने लगता है ।

ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥

तब द्वन्द्वों से आघात नहीं होता ।

आसन में स्थिर हो जाने पर, द्वन्द्व भाव विचलित नहीं करते । चाहे सुखपूर्वक भाव उठे अथवा दुख पूर्वक भाव उठे , आसन में स्थित पुरुष का चित्त स्थ्रिर रहता है । द्वन्द्व परिस्थितियों में भी वो विचलित नहीं होते ।

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ ४९ ॥

इसमें स्थिर हो जाने के बाद श्वास एवं प्रश्वास में रुकना प्राणायाम है ।

श्वास का अर्थ है – सांस का अन्दर लेना । प्रश्वास का अर्थ है – सांस को बाहर छोडना । आसन में स्थिर हो जाने पर श्वास – प्रश्वास की प्रक्रिया पर निय़ंत्रण रखना प्राणायाम है । प्राण का सीधा संबंध सांस से है । प्राणायाम में श्वास एवं प्रश्वास का नियंत्रित तरीके से अभ्यास किया जाता है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र ३१ – ४० ।

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१ ॥

जाति , देश , काल एवं समय से परे ये सार्वभौम महाव्रत है ।

ये महाव्रत जन्म , स्थान , समय से परे हैं । ये हमेशा एवं हर जगह लागू होते हैं । अष्टांग योग सार्वभौम महाव्रत हैं ।

शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥

शौच , संतोष , तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान – ये नियम हैं ।

नियम अपने देह एवं मन को नियंत्रित करता है । इसके पाँच अंग हैं = (1) शौच – स्वयं को शुद्ध एवं साफ रखना शौच है । (2) संतोष – जितनी संपत्ति और क्षमता है , उस में प्रसन्न रहना संतोष है । (3) तप – तप में शरीर एवं मन को अभ्यास से योगानुसार ढालते हैं । (4) स्वाध्याय – स्वाध्याय में आप्त वाक्यों का स्वयं अध्ययन करते हैं । (5) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति आस्था रखते हुये प्राणों का अर्पण करना ईश्वर प्रणिधान है ।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३३ ॥

वितर्क भावों को प्रतिपक्ष भावों से रोका जा सकता है ।

वितर्क अर्थात क्लिष्ट पैदा करने वाले भावों को प्रतिपक्ष अर्थात विपरीत भावों से रोका जा सकता है । जैसे अगर घृणा की भावना हो , तो ऐसा सोचना चाहिये की प्रेम की भावना उत्पन्न होने लगे । ऐसा सोचना की अंततः ये वितर्क भाव दुख ही देते हैं , ये भी प्रतिपक्ष भाव है । वितर्क भावों से होनेवाले दुख के बारे में सोचने से भी प्रतिपक्ष भाव पैदा होते हैं ।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥

हिंसा आदि वितर्क भाव , जो स्वयं , दूसरों से अथवा अनुमोदित करने से मृदु , मध्य अथवा अधिमात्रा में उत्पन्न होता है , दुख एवं अज्ञान रुपी अनंत फल देता है – यही प्रतिपक्ष भाव है ।

इस सूत्र में वितर्क भावों की व्याख्या की गयी है । ये वितर्क भाव पाँच यम के विपरीत भाव है – हिंसा , असत्य , स्तेय , परिग्रह एवं भोग । तीन प्रकार के कर्ता होते हैं – कृत अर्थात जो स्वयं करे , कारित अर्थात जो दूसरो से करवाये एवं अनुमोदित अर्थात जो इन भावों की अनुमोदना करे । ये भाव तीन प्रकार के हो सकते हैं – मृदु अर्थात कमजोर , मध्य , एवं अधिमात्रा अर्थात काफी तीव्र भाव । इस प्रकार इस सूत्र में पतंजलि मुनि ने 45 प्रकार के वितर्क भावों में भेद बतलाया है । ये सभी वितर्क भाव दुख एवं अज्ञान पैदा करते हैं ।

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ३५ ॥

अहिंसा में प्रतिष्ठित होने पर , उनके सान्निध्य में वैर का त्याग हो जाता है ।

जो व्यक्ति अहिंसा में प्रतिष्ठित हो गया हो , उसमें दूसरों को चोट पहुँचाने की भावना समाप्त हो जाती है । वह प्रेम परिपूर्ण होकर सारे जीव जंतुओं से प्रेम करने लगता है । फलस्वरुप जो भी उनके सन्निध्य में आते हैं , उनके भी वैर समाप्त होने लगते हैं ।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥

सत्य में प्रतिष्ठित होने पर क्रिया के फल का आश्रय हो जाता है । जो सत्य में प्रतिष्ठित है , वह कर्म और उससे होने वाले फल को सही देखना शुरु कर देते हैं । इससे कर्म के सही फल मिलना शुरू हो जाता है ।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७ ॥

अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर सभी रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।

अस्तेय का अर्थ है – चोरी न करना । जो सम्पत्ति अपनी अर्जित न हो , उसे अपना कर लेना अस्तेय है । अस्तेय में प्रतिष्ठित होने पर दूसरों का विश्वास बढने लगता है । इससे उस व्यक्ति के पास सारी आवश्यकता की चीजें स्वयं उपलब्ध होने लगते हैं ।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥

ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्य का लाभ होता है ।

ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर शक्ति बढ्ने लगती है । ब्रह्मचर्य में लैंगिक संबंधों में संयंम की अत्यावश्यकता है । वीर्य से शक्ति बढती है , और संयंम से मानसिक एवं शारीरिक शक्ति का विकास होता है ।

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः ॥ ३९ ॥

अपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर जन्म के कारण का संबोध हो जाता है ।

अपरिग्रह का अर्थ है – अनावश्यक वस्तुओं को इकट्ठा न करना । जो आवश्यक हो , उनका ही उपयोग करना । इस प्रकार जब अनावश्यक वस्तुओं से लगाव कम हो जाता है तो जन्म के सही कारण का संबोध होने लगता है ।

शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः ॥ ४० ॥

शौच से अपने अंग से वैराग्य एवं दूसरों से संसर्ग न करने की भावना होती है ।

शौच से यह पता चलता है कि अपना शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है । इसको हमेशा साफ रखने की आवश्यकता रहती है । यह जानकर कि य देह मलिन है , अपने अंगों से वैराग्य होने लगता है । दूसरो के अंगों से भी संसंर्ग करने की भावना समाप्त होने लगती है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र २९ – ३० ।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव अङ्गानि ॥ २९ ॥

यम , नियम , आसन , प्राणायम , प्रत्याहर , धारणा , ध्यान एवं समाधि – ये आठ अंग है ।

पतंजलि मुनि ने यहाँ योग के आठ अंगों का नाम लिया है । प्रत्येक अंग के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव हैं । नीचे इन्हीं का वर्णन है। (1) यम – अपने वाह्य वातावरण से कैसे व्यवहार किया जाये , यह उस प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है । (2) नियम – अपने देह एवं मन को कैसा व्यवहार करना चाहिये , यह उसे नियंत्रित करता है । (3) आसन – आसन देह को एक मुद्रा में ले जाकर स्थिर रखना है । इससे देह , मन इत्यादि शांत एवं स्वस्थ होते हैं । (4) प्राणायाम – यह प्राणमय कोश को नियंत्रित करता है । प्राण को वायु से कैसे सम्भाला जाये , यह इसके अंतर्गत आता है । (5) धारणा – मन को किसी रुप पर स्थिर करना धारणा है । (6) ध्यान – ध्यान में ईश्वर की सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है । (7) समाधि – यह कैवल्य की अवस्था है ।

वेदादि ग्रंथों में पाँच कोशों की परिचर्चा है – अन्नमय कोश , प्राणमय कोश , मनोमय कोश , विज्ञानमय कोश एवं आनन्दमय कोश । मेरी दृष्टि में ये कोश देह , प्राण , मन , बुद्धि एवं चित्त के रुप में प्रक़ट होते हैं । देह स्थूलतम रुप है , एवं चित्त सूक्ष्मतम । योगी पतंजलि जब चित्त के वृत्तियों की समाप्ति की बात करते हैं , तो वह जब तक नहीं हो सकता , तब तक स्थूलतर सत्तायें भी अपने विकारों का नाश न करे । अष्टांग योग में प्रत्येक अंग हरेक कोशों को प्रभावित करता है , परंतु एक एक अंग का प्रभाव किसी विशेष कोश पर ज्यादा पडता है । यम , नियम एवं आसन अन्नमय कोश को सबसे ज्यादा विकारहीन बनाते हैं । प्राणायाम प्राणमय कोश के उपर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है । धारणा एवं ध्यान ज्यादा मनोमय एवं विज्ञानमय कोश से सम्बंधित हैं । समाधि का सीधा संबंध आनन्दमय कोश से है । अन्नमय एवं प्राणमय कोश स्थूलतम हैं , एवं वाह्यंतर भाव के भी हैं । प्रथम पाँच अंग अंतरंग भाव के साथ-साथ वाह्य वातावरण के व्यवहार को भी प्रभावित करते हैं । शेष तीन अंग – धारणा , ध्यान एवं समाधि मूलतः अंतरंग भावों से सम्बंधित हैं ।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ ३० ॥

अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह – ये यम हैं ।

यम वाह्य व्यहवार को नियंत्रित करता है । (1) अहिंसा – मन , कर्म अथवा वचन के द्वारा पुण्यमय अस्तित्व को हानि नहीं पहुँचाना चाहिये । जीव हत्या हिंसा का प्रबल रुप है । अपने वचन के द्वारा अकारण दूसरों को दुख देना भी हिंसा है । (2) सत्य – प्रमाण , अनुमान एवं आगम से जो सत्य बनता है , उसी का अनुशरण करना चाहिये । (3) अस्तेय – अस्तेय का अर्थ है जो सम्पत्ति अपनी न हो , उसे न लेना । (4) अपरिग्रह – जितनी आवश्यकता हो , उतना ही अपने पास रखना चाहिये । (5) ब्रह्मचर्य – गृहस्थाश्रम से अलग संयम रखना ब्रह्मचर्य है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र ११ – २० ।

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥ ११ ॥

वो वृत्तियाँ ध्यान से कम हो जाती हैं ।

पिछले सूत्रों में पाँच वृत्तियाँ बतायी गयी है – अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश । इन वृत्तियों की उत्पत्ति पुराने संस्कारों से होती है । ध्यान से ये क्लेश रुपी वृत्तियाँ क्षीण होते जाती है । ध्यान में शांत रुप से अंतर्मुखी होकर मन में उठने वाले विचारों को देखा जाता है । इससे ये विकार स्वयं कम होने लगते हैं ।

क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२ ॥

कर्माशय ही क्लेष का मूल है , इसकी वेदना दृष्ट अर्थात वर्तमान या अदृष्ट अर्थात अगले जन्मों में व्यक्त होगी ।

कर्माशय का अर्थ है – संचित भूतपूर्व कर्म । क्लेश वृत्तियाँ इन्हीं से निकलती हैं । ये आशय इस जन्म में , नहीं तो अगले जन्मों में प्रकट होती हैं । दृष्ट वर्तमान जन्म से है , क्योंकि वह दिखायी दे रहा है । अदृष्ट अगले जन्मों से है , क्योंकि वह अभी पता नहीं चलता ।

सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥

इस मूल से जाति , आयु एवं भोग का विपाक होता है ।

कर्माशय से अर्थ संचित कर्मों से है । जब तक इन मूलों का अस्तित्व है , जन्म , मरण एवं भोग का चक्र चलता रहता है । जाति का अर्थ जन्म से है । आयु का अर्थ यहाँ पर जीवित अवस्था से है । आयुहीन का अर्थ मरण से है । जब तक आयु है , भोग का क्रम चलता रहता है । ये अनुभव कर्माशय मूल से उत्पन्न होते हैं । जब तक कर्माशय संचित है , यह चक्र चलता रहता है ।

ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ १४ ॥

इन पुण्य एवं अपुण्य कारणों से आह्लाद एवं परिताप होता है । भोग या तो पुण्य रुप के हैं , अथवा अपुण्य रुप के हैं । इनसे खुशी या गम होता है । परंतु ये आह्लाद एवं परिताप दुख के ही रुप हैं । यह अगले सूत्र में बताया गया है ।

परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच् च दुःखम् एव सर्वं विवेकिनः ॥ १५ ॥

परिणाम ताप, संस्कार से दुख एवं गुण तथा वृत्ति के विरोध से दुख – विवेकी सर्वत्र दुख देखता है । परिणाम ताप से अर्थ कर्म के फलस्वरुप हुये दुख से है । संस्कार कर्माशय से होता है । संस्कार से भी अनुभव दुख प्रतीत होते हैं । गुण और वृत्ति के विरोध से भी दुख होता है । विवेकी सर्वत्र दुख देखता है ।

हेयं दुःखम् अनागतम् ॥ १६ ॥

अनागत दुख हेय है । जो दुख अब तक नही आया है , उससे बचा जा सकता है ।

द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥

द्रष्टा एवं दृष्य के संयोग से यह हेय है ।

अगर द्र्ष्टा एवं दृष्य का संयोग हो जाये , तो उससे अनागत दुख समाप्त हो जाते हैं । जब तक चित्त में वृत्तियाँ हों , दृष्य द्र्ष्टा के संस्कार भावों से प्रभावित है । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य भिन्न हैं । जब चित्त की वृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं , तो अनागत दुख दुखभाव नहीं देता । इस समय द्र्ष्टा एवं दृष्य़ का संयोग हो गया रहता है ।

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ १८ ॥

दृश्य प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र , भूत एवं इन्द्रियों, और भोग एवं अपवर्ग के अर्थ से बनता है ।

दृश्य अर्थात जो दिखायी देता हो – वह प्रकाश , क्रिया एवं स्थिति के चरित्र से बना है । गुण तीन प्रकार के हैं – सत , रज एवं तम । सद्गुण प्रकाश के चरित्र का है । इस गुण में मन का अन्धकार समाप्त होने लगता है । राजसी गुण व्यक्ति को कर्म करने के लिये उत्साहित करते हैं । यह क्रिया से सम्बंधित है । तामसी गुण में आलस्य , क्रोध के वजह से मन एवं शरीर भारी रहता है । ऐसा लगता है कि देह भारी होकर स्थिर हो गया हो । दृश्य इन तीन प्रकार के चरित्र से समाहित है । दृश्य में भूत अर्थात पदार्थ एवं इन्द्रियों द्वारा उनका अनुभव सम्मिलित है । कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दृश्य का अनुभव होता है । भोग अर्थात विषयों का भोग करना एवं अपवर्ग अर्थात उनको छोड देना भी दृश्य के अंतर्गत आते हैं ।

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ १९ ॥

विशेष , अविशेष , लिंगमात्र , एवं अलिंग – ये गुण के पर्व हैं । पर्व का अर्थ अवस्था से है । गुण विशेष अथवा अविशेष होता है । यह लिंग और अलिंग रुप में भी प्रकट होता है । इस सूत्र में यह बताया जा रहा है कि दृष्य गुण के इन अवस्थाओं से बनता है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – द्वितीयः साधनपादः । सूत्र १ – १० ।

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥

तप , स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग है ।

क्रिया योग के तीन अंग हैं – तप , स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान । तप से अर्थ है – मन , कर्म एवं वचन से स्वधर्म का सहर्ष पालन करना । अपने धर्म के पालन में कई प्रकार के कष्ट उत्पन्न होते है । इन कष्टकारी परिस्थितियों में भी अपने धर्म का पालन करना तप है । स्वाध्याय से अर्थ है – स्वयं पढ्ना । आप्त वचनों का अध्ययन करना एवं उसको ध्यान में रखना स्वाध्याय हैं । स्वाध्याय से सही ज्ञान होता है । ईश्वर प्रणिधान से अर्थ है – ईश्वर के प्रति अपने प्राणों को आधीन कर देना । इसके अंतर्गत ईश्वर के प्रति प्रगाढ आस्था उत्पन्न होती है ।

समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥

यह समाधिभाव देता है एवं क्लेश को कमजोर बना देता है ।

योग का लक्ष्य क्लेष को समाप्त करना होता है । क्रिया योग क्लेश को कमजोर कर देता है । यह समाधि का भी भाव उत्पन्न करता है । समाधि में चित्त की वृत्तियाँ कम होने लगती हैं ।

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३ ॥

अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष एवं अभिनिवेश – ये क्लेश हैं ।

यहाँ पर पाँच प्रकार के क्लेश बताये गये हैं – (1) अविद्या से अर्थ अज्ञान से है । इसमें ज्ञान सही नहीं रहता । (2) अस्मिता से अर्थ अपनेआप से ज्यादा लगाव का होना है । यह अहंकार की भावना लाता है । (3) राग का अर्थ है वाह्य वस्तुओं से ज्यादा लगाव का होना । राग से मोह की भावना उत्पन्न होती है । (4) द्वेष राग का विपरीत है । द्वेष में घृणा की भावना उत्पन्न होती है । (5) अभिनिवेश का अर्थ है – अनुभवों को संचित रखना । पुराने अनुभवों से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव में आकर सही रुप न देखने पर , अविद्या क्लेश होता है ।

अविद्या क्षेत्रम् उत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ ४ ॥

अविद्या का क्षेत्र – प्रसुप्त , तनु , विच्छिन्न एवं उदार होता है । अविद्या प्रसुप्त होता है । प्रसुप्त से अर्थ है वह सोया हुआ है , और भविष्य में पुनः उत्पन्न हो सकता है । यह तनु भी होता है । तनु से अर्थ कमजोर से है । क्रियायोग से अविद्यादि क्लेश कमजोर हो जाते हैं । यह विच्छिन्न भी होता है । विच्छिन्न से अर्थ है – बिखरा हुआ । ये क्लेश अन्य क्लेशों के आने पर तितर-बितर जो जाते हैं , परंतु फिर भी चित्त में वर्तमान रहते हैं । उदार से अर्थ है वर्तमान होना । उदार अविद्यादि वर्तमान में सक्रिय रहते हैं ।

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ ५ ॥

इसमें अनित्य , अशुचि , दुख एवं अनात्म में नित्य , शुचि , सुख एवं आत्म दिखता है । अविद्या का अर्थ है – सत्य के स्थान पर असत्य को देखना । जो अनित्य है , उसको नित्य समझना । अर्थात जो समाप्त हो जावे , ऐसा समझना कि वो कभी समाप्त ही न होगी । जो अपवित्र हो , उसको पवित्र समझना भी अविद्या है । दुख को सुख समझना भी अविद्या है । ऐसे में व्यक्ति दुख यह सोचकर उत्पन्न करते रहता है कि उसे सुख प्राप्त हो रहा है या सुख प्राप्त होगा । जो आत्मा को न भाये , उसे आत्मभाव में समझ लेना अविद्या है ।

दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता ॥ ६ ॥

अस्मिता दृग्दर्शन की शक्ति को एकात्मता के समान कर देता है ।

अस्मिता से अर्थ मन एवं अहंकार से है । यह व्यक्ति में आत्मता का भाव उत्पन्न करता है । इसमें मन में अहंकार पैदा होता है और व्यक्ति अपने आप को कर्ता समझने लगता है । यह भाव दृग्दर्शन को ढंक लेता है । दृग्दर्शन से अर्थ पुरूष के दर्शन से है । अस्मिता एक प्रकार का क्लेश है । इसमें व्यक्ति अपने देह से अतिशय प्रेम करने लगता है , और यह मोह उसे ईश्वर का सही रुप नहीं देखने देता ।

सुखानुशयी रागः ॥ ७ ॥

राग सुख का अनुशयी है ।

राग सुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से सुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति मोह पैदा हो जाता है । अत्यधिक मोह से राग होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।

दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥

द्वेष दुख का अनुशयी है ।

द्वेष दुखी अनुभवों से पैदा होता है । जब किसी से दुख का अनुभव मिलता है , तो उस के प्रति घृणा की भावना हो जाती है । इस से द्वेष होता है , जो एक प्रकार का क्लिष्ट अनुभव है ।

स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढो भिनिवेशः ॥ ९ ॥

अभिनिवेश अपने रस में स्थिर होता है, और विद्वानो में भी आरुढ है ।

अभिनिवेश से अर्थ व्यक्तिगत लगाव से चिपटना है । ऐसा विद्वानो में भी होता है । ऐसा लगाव पुराने अनुभवों से उत्पन्न होता है । ये अनुभव संस्कार बनकर रहते हैं ।

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १० ॥

सूक्ष्म रुप में उनकी उत्पत्ति समझने पर वो समाप्त हो जाती हैं ।

अभिनिवेश भाव का प्रसव अर्थात उत्पत्ति संस्कारों से होती है । पहले सूक्ष्म रुप से यह देखा जाना चाहिये कि ये विचार कहाँ से उत्पन्न हो रहे हैं । फिर उनकी उत्पत्ति के भाव को जड से निकाल देने पर अभिनिवेश संस्कार समाप्त हो जाते हैं ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – प्रथम: समाधिपादः । सूत्र ४१ – ५१ ।

क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनतासमापत्तिः ॥ ४१ ॥

वृत्तियो के क्षीण हो जाने पर समापत्ति उत्पन्न होती है , जिसमें ग्रहीता , ग्रहण एवं ग्राह्येषु में स्थिर वैसा ही स्वरुप ले लेता है , जैसा पवित्र मणि लेता है ।

वृत्तियों के कमजोर हो जाने पर मन शांत हो जाता है । ऐसी स्थिति में जैसे पवित्र मणि वाह्य स्वरुप का बिना किसी अपरुप के , सही प्रतिबिम्ब दिखाता है , वैसे ही चित्त भी सही रुप को देखना शुरु कर देता है । इस दृष्टि के तीन अंग हैं – ग्रहीता , ग्रहण एवं ग्राह्य । ग्राह्य से अर्थ अनुभूत विचारों से है । किसी विषय से जो अनुभव मन एवं बुद्धि में पैदा होते हैं , वो ग्राह्य है । ग्रहीता कर्ता का रुप है । ग्रहण ग्रहीता द्वारा ग्राह्य के अनुभव करने की क्रिया है । वृत्तियों के क्षीण हो जाने, ग्रहीता को ग्राह्य का जैसा रुप है , वैसा ही दिखने लिगता है ।

तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥ ४२ ॥

तब शब्द , अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प से संकीर्ण समापत्ति सवितर्क है । चित्त के शांत हो जाने पर जब शब्द , अर्थ एवं ज्ञान के विकल्पों पर ध्यान दिया जाये , तो सवितर्क समापत्ति होती है । इसमें शब्दों के सही अर्थ का ज्ञान होता है । इस प्रकार के ज्ञान में चित्त में वृत्तियाँ नहीं पैदा होतीं । इसमें ग्राह्य शब्दों का सही रुप दिखता है , एवं सद्ज्ञान होता है । सवितर्क एवं निर्वितर्क समाधि में वाह्य स्थूल वस्तुवों के अनुभव की बात की गयी है । ये अनुभव पाँच ज्ञानेन्द्रियों , आँख , नाक , मुँह , कान एवं त्वचा से होता है । ये शब्द , अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प में बदलती हैं । सवितर्क समाधि मॆं शब्दों का ज्ञान होता है , एवं सही अर्थ का पता चलता है ।

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ ४३ ॥

निर्वितर्क समापत्ति में स्मृति के परिशुद्ध हो जाने पर स्वरुप शून्य हो जाता है , केवल अर्थ का ही भास होता है ।

निर्वितर्क समापत्ति में स्मृति शुद्ध हो जाती है । इससे वस्तु विशेष का रुप शून्य की भाँति हो जाती है । स्मृतियाँ पुराने संस्कारों से बनी होती हैं । अत: प्रायः अनुभव स्मृतियों से उत्पन्न होते हैं । चित्त वृत्तियों के क्षीण होने के पश्चात अर्थ पर स्मृतियों का प्रभाव नहीं पडता , क्यों कि वे समाप्त हो गयी रहती हैं । तत्पश्चात सही अर्थ दिखायी देने लगता है । यह निर्वितर्क समाधि है । तन्मात्राओं से प्राप्त हुआ अर्थ निर्वितर्क समाधि में स्मृति से प्रभावित नहीं होता ।

एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ ४४ ॥

इसी प्रकार से सूक्ष्म विषयों की व्याख्या सविचार एवं निर्विचार में है ।

सवितर्क एवं निर्वितर्क समाधि में वाह्य स्थूल वस्तुवों के अनुभव की बात की गयी है । सविचार एवं निर्विचार समाधि में सूक्ष्म विषयों की बात की गयी है । सूक्ष्म विषयों में दृष्टि , गंध , रस , श्रवण एवं स्पर्श की तन्मात्रायें , मन एवं अहंकार सम्मिलित है । सविचार समाधि में सूक्ष्म विषयों के सही अर्थ का पता चलता है । निर्विचार समाधि में ये अर्थ भी समाप्त हो जाते हैं , और चित्त परिशुद्ध हो जाता है ।

सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥ ४५ ॥

तथा सूक्ष्म विषय अलिंग एवं पर्यवसानम है ।

अलिंग से अर्थ है – वाह्य स्वरुप का अभाव होना । सूक्ष्म विषयों के वाह्य स्वरुप नहीं होते हैं । वे पर्यवसानम हैं – अर्थात प्रकृति में समाहित रहते हैं । जैसे कि विभिन्न तन्मात्रायें प्राकृतिक अनुभव से ही पैदा होती हैं ।

ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥ ये सभी सबीज समाधि है । सवितर्क , निर्वितर्क , सविचार एवं निर्विचार – ये सारी समाधियाँ सबीज हैं । इनमें चित्त निर्मल एवं शुद्ध हो जाता है , परंतु इन सारी वृत्तियों में अभी भी ध्येय पदार्थ की चित्त वृत्तियाँ शेष रहती हैं ।

निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥ ४७ ॥

निर्विचार की पवित्रता में अध्यात्म प्रसन्न होता है ।

निर्विचार समाधि में अध्यात्म ज्ञान उत्पन्न होने लगता है ।

ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥

तब प्रज्ञा ऋतंभरा हो जाती है ।

प्रज्ञा तब सत्य पर आधारित हो जाती है । अब प्रज्ञा को सही रुप दिखायी देने लगता है ।

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्याम् अन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥ ४९ ॥

इसमें विषयों का अर्थ श्रुत (सुने हुए ) , अनुमानित ( अनुमान किये हुए ) एवं प्रज्ञा से प्राप्त अनुभओं से अलग एवं विशेष होता है |

ऋतंभरा में प्राप्त अनुभव विशेष एवं भिन्न होते हैं । यह सुने हुये , अनुमान किये हुये एवं साधारण अनुभवों से अलग होते हैं ।

तज्जः संस्कारोन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५० ॥

तब उत्प्न्न संस्कार अन्य संस्कारों को समाप्त कर देते हैं । इस समाधि में उत्पन्न होने वाले संस्कार अन्य संस्कारों को समाप्त कर देते हैं । तब कोई संस्कार शेष नहीं रह जाते एवं चित्तवृत्तियाँ पूर्णतः समाप्त होने लगती हैं ।

तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान् निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥

जब वह संस्कार भी समाप्त हो जाता है , सब संस्कार समाप्त हो जाते हैं , वह निर्बीज समाधि है । निर्बीज समाधि में सब संस्कार समाप्त हो जाते हैं । चित्तवृत्तियाँ पूर्णतः समाप्त हो जाती हैं ।

इति पतञ्जलिविरचिते योगसूत्रे प्रथमः समाधिपादः ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – प्रथम: समाधिपादः । सूत्र ३१ – ४० ।

दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१ ॥

दुख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास एवं प्रश्वास – ये चित्तविक्षेप से अनुभूत होते हैं ।

विक्षेपों से इन भावों का अनुभव होता है – दुख – दुख से मन एवं शरीर में पीडा का अनुभव होता है । दुख के कारणानुसार तीन प्रकार हैं – आधिभौतिक , आध्यात्मिक एवं आधिदैविक । शरीर से उत्पन्न दुख आधिदैविक है । मन में काम, क्रोध, मद, मान एवं मोह से उत्पन्न होने वाला दुख आध्यात्मिक है । जो दुख भूकम्प , सर्दी , गर्मी इत्यादि से उत्पन्न हो वह आधिदैविक है । दौर्मनस्य – इच्छा की पूर्ति न होने पर जो क्षोभ की भावना उत्पन्न हो वह दौर्मनस्य है । अंगमेजयत्व – शरीर के अंगों में कम्पन होना अंगमेजयत्व है । यह शरीर में कमजोरी से होता है । यह स्नायुतंत्रॉं की कमजोरी से भी उत्पन्न होता है । श्वास – विक्षेपों से साँस अन्दर लेने में भी दिक्कत होती है । प्रश्वास – विक्षेपों से साँस छोड्ने में भी दिक्कत होती है ।

तत्प्रतिषेधार्थम् एकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥

उनके प्रतिषेध के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये ।

विघ्नो को रोकने के लिये एकतत्व का अभ्यास करना चाहिये । एकतत्व से अर्थ अगले सूत्र में वर्णित समसुखदुखभाव से है ।

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ ३३ ॥

सुख-दुख पुण्य-अपुण्य विषयों में मैत्री , करुणा , मुदिता एवं उपेक्षा की भावनाओं से चित्त शांत हो जाता है ।

इन्द्रियाँ हमेशा सुख-दुख पुण्य-अपुण्य जैसे द्वन्द्व भावों से जूझते रहती हैं । इन परिस्थितियों में भी मैत्री , करुणा , प्रसन्नता एवं समभाव रखने से इन द्वन्द्व भावों का चित्त पर प्रभाव नहीं पड्ता । इससे चित्त निर्मल एवं स्वच्छ हो जाता है ।

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ ३४ ॥

अथवा प्राण को बाहर रोकने से भी ऐसा होता है ।

प्रच्छर्दन से अर्थ है श्वास को बाहर निकालना । बारबार श्वास को बाहर निकालकर रोकने से प्राण चित्त को निर्मल करता है । यहाँ पर पतंजलि श्वास एवं प्रश्वास के महत्व का वर्णन करते हैं । सुख-दुख इत्यादि द्वन्द्व भाव चित्त में वृत्तियों को उत्पन्न करते हैं । निय़ंत्रित श्वास-प्रश्वास के द्वारा प्राण नियंत्रित होने लगते हैं , और द्वन्द्व भावों का प्रभाव घटने लगता है ।

विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ ३५ ॥

अथवा विषयों से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्तियों को स्थिर मन से बाँध देती है ।

विषयों के अनुभव से विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । स्थिर मन इन प्रवृत्तियों से चित्त को प्रभावित नहीं होने देता ।

विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥

शोकरहित एवं ज्योतिपूर्ण भावों से भी होता है ।

ऐसे विचार जिनमें शोक का अभाव हो , उनसे भी चित्त निर्मल होता है । ज्योतिपूर्ण भाव , अर्थात वो विचार जो चित्त में अद्भुत ज्योति भर दें , उनसे भी निर्मलता आती है । इस सूत्र में अक्लिष्ट वृत्तियों के प्रभाव की बात की गयी है ।

वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ ३७ ॥

अथवा चित्त को राग एवं विषय से स्वतंत्र करने पर होता है ।

राग से अर्थ आसक्ति से है । आसक्ति से चित्त चंचल होता है । विषय से अर्थ इन्द्रियों से अनुभव करने वाले वो विचार हैं , जो काम , क्रोध , मद , लोभ एवं मोह उत्पन्न करते हैं । चित्त अगर वीतरागविषय हो , अर्थात राग और विषय के बिना हो तो , एकतत्व का अभ्यास होता है । इससे भी चित्त निर्मल एवं स्वच्छ होता है ।

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ ३८ ॥

स्वप्न एवं निद्रा के ज्ञान पर आधारित चित्त भी स्थिर होता है ।

स्वप्न एवं निद्रा में भी ज्ञान मिलता है । इसकी यहाँ विशेष चर्चा है क्योंकि निद्रावस्था में मन जागृत नहीं रहता । इसके फलस्वरुप , स्वप्न में व्यक्ति की अंतर्मन की बातें व्यक्त होती हैं । इनसे प्राप्त ज्ञान से भी चित्त स्थिर होने लगता है ।

यथाभिमतध्यानाद् वा ॥ ३९ ॥

जिसका जैसा अभिमत हो , उसके ध्यान से भी ( चित्त स्थिर हो जाता है ) |

जिसका जो अभिमत हो , अर्थात जो पसंद की वस्तु हो , उस पर भी ध्यान करने से चित्त स्थिर हो जाता है । ऐसा कहने का अर्थ है कि जिससे लगाव हो , अगर उस मत पर विचार किया जाये तो सही ज्ञान मिलता है । इस ज्ञान से भी चित्त स्थिर होने लगता है ।

परमाणु परममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥ ४० ॥

उसका परमाणु से लेकर परम महत्व तक वश में हो जाता है । जिसने उपर वर्णित सूत्रों के द्वारा चित्त्त को स्थिर कर लिया हो , और एकतत्व की प्राप्ति कर ली हो , वह अपने चित्त को न्यूनतम परमाणु से लेकर परम महत्व वाले तक किसी भी प्रकार के विचार पर स्थिर कर लेता है । ऐसे योगी का चित्त वश में हो गया है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – प्रथम: समाधिपादः । सूत्र २१ – ३०।

तीव्रसंवेगानाम् आसन्नः ॥ २१ ॥

तीव्र संवेग से शीघ्र होता है ।

यदि प्रयास तीव्र एवं जोर का हो , तो प्रज्ञा शीघ्र उत्पन्न होती है । तेजी से चलता हुआ योगाभ्यास शीघ्र सिद्ध होता है ।

मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ २२ ॥

उनमें भी मृदु , मध्य एवं उच्च का भेद हो जाता है ।

तीव्र संवेग वालों में भी किस प्रकार का अभ्यास है , उससे अंतर पड जाता है । अगर उच्च कोटि का प्रयास हो तो सिद्धि शीघ्र होती है । मध्य एवं मृदु कोटि के प्रयास ज्यादा समय लेते हैं ।

ईश्वरप्रणिधानाद् वा ॥ २३ ॥

अथवा , ईश्वर प्रणिधान से भी होता है ।

योगाभ्यास ईश्वर को प्राण समर्पित करने से भी होता है । ईश्वर के प्रति भक्ति हो , और श्रद्धापूर्वक समर्पण किया जाये तो उससे भी योग शीघ्र होता है ।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४ ॥

क्लेश , कर्म , विपाक और आशय से जो विशेष पुरूष अपरामृष्ट हो वह ईश्वर है ।

इस सूत्र तथा अगले सूत्रों में ईश्वर की व्याख्या है । ईश्वर एक विशेष प्रकार का पुरूष है । वह क्लेश , कर्म , विपाक एवं आशय से प्रभावित नहीं होता । क्लेश ऐसे अनुभवों को कहते हैं , जिनसे चित्त की वृत्तियाँ बढ्ती हैं । ईश्वर पर क्लिष्ट वृत्तियों का प्रभाव नहीं होता । क्लेश दुख एवं कष्ट देता है । कर्म से साधारण पुरूष सुख एवं दुख का अनुभव करते हैं , और कर्म से आसक्ति कर लेते हैं । कर्म के फलीभूत होने की आसक्ति विपाक से सम्बंधित है । ईश्वर कर्म फल के प्रति आसक्त नहीं होता । कर्म से उत्पन्न होने वाले अनुभवों को भी संचित नहीं रखता । आशय का अर्थ है , कर्म से होने वाले अनुभवों को हृदय में संचित रखना । अर्थात कर्म से उत्पन्न होने वाले विपाक एवं आशय से ईश्वर अनासक्त है ।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञ्त्वबीजम् ॥ २५ ॥

वह सब ज्ञान का बीज है और उससे कोई अतिशय नहीं है ।

ईश्वर को सर्वज्ञान है । उससे बढकर भी कोई नहीं । अतिशय का अर्थ है – ज्यादा । ईश्वर से ज्यादा ज्ञानी कोई नहीं ।

स पूर्वेषाम् अपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥

काल से भी अनवच्छेदित , वह पूर्वजों का भी गुरू है ।

ईश्वर काल से परे है । जब काल अर्थात समय भी नहीं था , उस समय भी ईश्वर की सत्ता व्याप्त थी । वह प्रथम गुरू है । पूर्वजों को भी उसने प्रथम शिक्षा दी थी । ईश्वर अनादि है , वह अमर है ।

तस्य वाचकः प्रणवः ॥ २७ ॥

प्रणव अर्थात ॐ उसका वाचक है ।

यहां वाचक का अर्थ उस शब्द से है , जो ईश्वर की बात करता हो । ॐ ईश्वर का नाम है । यह ध्वनि में ईश्वर का मूर्त रुप है ।

तज्जपस्तदर्थभावनम् ॥ २८ ॥

उसके अर्थ के भाव के साथ उसका जप करो ।

योगी को प्रणव का जप करना चाहिये । और उसके साथ उसके अर्थ के भाव का भी स्मरण करना चाहिये । इसी को प्रारम्भ में ईश्वर प्रणिधान भी कहा गया । प्रणव के जाप एवं स्मरण से ईश्वर के प्रति भक्ति एवं समर्पण बढता है ।

ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥

उससे अंतरात्मा की चेतना का ज्ञान एवं विघ्नों का अभाव अर्थात अंत हो जाता है । ईश्वर प्रणिधान से अन्दर की चेतना जागृत हो जाती है । उपर के सूत्रों में कुछ उपायों का वर्णन है , जिससे चेतना जागृत हो जाती है । खास कर के , प्रणव के भावपूर्वक जाप से मन अंतर्मुखी हो जाता है और चेतना जागृत होती है । इससे अंततः विघ्न अर्थात योग के पथ की कठिनाइयाँ समाप्त हो जाती हैं ।

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभू- मिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ ३० ॥

व्याधि , स्त्यान , संशय , प्रमाद , आलस्य , अविरति , भ्रांतिदर्शन , अलब्धभूमिकत्व एवं अनवस्थित्व – ये चित्त के विक्षेप ही अंतराय अर्थात विघ्न हैं ।

इस सूत्र में योग के पथ के विघ्नों की बात कही गयी है । ये विघ्न चित्त के विक्षेप हैं , और अंततः क्लिष्ट वृत्तियों को पैदा करते हैं । अतः इनको न उपजने देना योग के फल में सहायता करता है । (1)व्याधि – शरीर, मन एवं चित्त में रोग को व्याधि कहा गया है । व्याधि दुख उत्पन्न करता है , जिससे चित्त चंचल हो जाता है । (2) स्त्यान – योगसाधन में प्रवृत्ति का न होना स्त्यान है । स्त्यान एक प्रकार की अकर्मण्यता है । (3) संशय – योगसाधन के प्रति संदेह हो जाना संशय है । इससे योग के प्रति श्रद्धा कम हो जाती है , एवं योगाभ्यास का कम असर पड्ता है । (4) प्रमाद – योगाभ्यास की प्रवृत्ति होने पर भी उसमें बेपरवाही बरतना प्रमाद है । (5) आलस्य – चित्त में भारीपन हो जाना आलस्य को जन्म देता है । इसमें स्थूल शरीर अभ्यास में बाधा डालता है । (6) अविरति – विषयों के प्रति आसक्ति हो जाने से चित्त में वैराग्य का अभाव हो जाना अविरति है । इस विघ्न में अत्यधिक आसक्ति से मोह उत्पन्न होता है । (7) भ्रांतिदर्शन – भ्रांति का अर्थ है – भ्रमपूर्ण । अर्थात जो सही नहीं हो , उसका सही प्रतीत होना भ्रांतिदर्शन है । (8) अलब्धभूमिकत्व – योग के भूमिकाओ को प्राप्त न कर पाना , अलब्धभूमिकत्व है । इसमें योगी को अभ्यास के बावजूद भी साधना में विकास का अभाव दिखता है । इससे उत्साह कम हो जाता है । (9) अनवस्थित्व – भूमि पर देह स्थिर होने पर भी , चित्त का स्थिर न होना अनवस्थित्व है । इन चितविक्षेपों से योगाभ्यास में विघ्न पैदा होता है ।

योगसूत्र (पतञ्जलि) – प्रथम: समाधिपादः । सूत्र ११ – २0 ।

अनुभूतविषयासंप्रमोषः स्मृतिः ॥ ११ ॥

अनुभव किये हुए विषयों का न छुपना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति है ॥ ११ ॥

स्मृति में पुरानी बातें याद आती हैं । कुछ अनुभव जो कि मस्तिष्क में छुपे हुये हैं , मानस पटल पर प्रकट हो जाते हैं । इनके फलस्वरुप स्मृत्ति वृत्तियाँ पैदा होती हैं ।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥ १२ ॥

वृत्तियों का निरोध अभ्यास एवं वैराग्य से होता है ॥ १२ ॥

यह कहने के बाद कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है , ऋषि पतंजलि ने पाँच वृत्तियों का वर्णन किया । ये वृत्तियाँ हैं – प्रमाण , विपर्यय , विकल्प , निद्रा एवं स्मृति । क्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट वृत्तियों के द्वारा समाप्त की जा सकती हैं । योगी ऐसा अभ्यास एवं वैराग्य से कर सकता है । अगले सूत्रॉं में अभ्यास एवं वैराग्य की व्याख्या की गयी है ।

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ॥ १३ ॥

वह अर्थात वृत्तियाँ यत्न पूर्वक अभ्यास से स्थित हो जाती हैं ॥ १३ ॥

यहाँ पर यत्न का अर्थ लगातार प्रयास करने से है । अभ्यास का अर्थ है – किसी कार्य को अनंतर करते रहना ।

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥ १४ ॥

और , वह, अर्थात अभ्यास , लम्बे समय तक लगातार आदरपूर्वक करने पर दृढ होते जाता है ॥ १४ ॥

अभ्यास के विभिन्न अंग हैं – दीर्घ काल तक योग करना , योग के प्रति श्रद्धा रखना एवं निरंतर योग करना । ऐसा करने से जिसका अभ्यास किया जाता है , वह दृढ हो जाता है ।

दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥ १५ ॥

देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा , अर्थात लगाव , के अभाव के वशीभूत हो जाना वैराग्य है ॥ १५ ॥

वैराग्य का अर्थ है – राग का अभाव । इन्द्रियों से जब विषयों का अनुभव होता है , तब वो चित्त में राग पैदा करते हैं । व्यक्ति सुख एवं दुख के थपेडे खाते रहता है । वैराग्य का अर्थ है कि विषयों से पैदा होने वाले लगाव को न आने देना । ऐसे लगाव से मोह होता है , जो योगाभ्यास में बाधक है । इसका अर्थ यह भी नहीं है कि विषयों को देखा और सुना न जाये । यह तो अवश्यंभावी है । सिर्फ विषयों के प्रति तृष्णा नहीं होने देना चाहिये ।

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ॥ १६ ॥

तब परम पुरूष दिखता है , और गुणों से वितृष्णा आ जाती है ॥ १६ ॥

प्रकृति में तीन प्रकार के गुण होते हैं – सत्त्व , रजस एवं तमस। प्रक़ृति को देखने एवं सुनने से विषय मन में तृष्णा पैदा करते हैं । ये तृष्णा व्यक्तिगत गुणों के प्रभाव से उत्पन्न होता है । वैराग्य से इस तृष्णा का नाश होता है । इससे चित्त की वृत्तियाँ समाप्त होने लगती हैं , एवं परम पुरुष दिखने लगता है ।

वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञातः ॥ १७ ॥

सम्प्रज्ञात में वितर्क , विचार , आनन्द एवं अस्मिता का अनुगमन होता है ॥ १७ ॥

सम्प्रज्ञात में चार प्रकार की भावनाएँ है – वितर्क , विचार , आनन्द एवं अस्मिता । वितर्क में बुद्धि तर्क से विषयों का विष्लेषण करती है । विचार में मन विषयों के बारे में सोचता है । सम्प्रज्ञात योग में वितर्क एवं विचार से अक्लिष्ट वृत्तियाँ जन्म लेती हैं । इनसे चित्त में आनन्द का भाव पनपता है । तत्पश्चात अस्मिता का भाव भी आता है , जिसमें आत्मस्वरुप का ज्ञान होने लगता है ।

विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ १८ ॥

पहले प्रत्यय में विराम आता है , और सिर्फ संस्कार शेष रहते हैं ॥ १८ ॥

यहाँ पर प्रत्यय का अर्थ विषयों के अनुभव से उत्पन्न होने वाले संचित अनुभव से है । विषय ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा अनुभव किये जाते हैं , और अंतत: चित्त में वृत्तियों को उत्पन्न करते हैं । विषय रुप , शब्द , गंध , स्वाद एवं स्पर्श से उत्प्न्न होते हैं । सम्प्रज्ञात योग के अभ्यास से पहले प्रत्यय समाप्त हो जाता है । इस समय संस्कार विद्यमान होते हैं । संस्कार मनोमय कोश में प्रसुप्त अवस्था में विद्यमान होते हैं । ये विशेष परिस्थिति में व्यक्ति विशेष के स्वभाव में उभर कर आते हैं । संस्कार प्रत्यय से बनता है ।

भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १९ ॥

विदेह में , अर्थात देह न रहने , पर भवप्रत्यय प्रकृति में लीन हो जाते हैं ॥ १९ ॥

भवप्रत्यय का अर्थ संचित अनुभवों से है । ये कर्म से प्रभावित होते हैं । ऐसे प्रत्यय मृत्यु के पश्चात भी प्रकृति में विद्यमान रहते हैं । देहावसान के बाद प्रकृति में लीन ये विकार पुनर्जन्म से दूसरे देह में संलग्न हो जाते हैं ।

श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ २० ॥

दूसरे योगी श्रद्धा , वीर्य , स्मृति , समाधि एवं प्रज्ञा से होते है ॥ २० ॥

योगी जो विदेह नही हैं , उनके लिये श्रद्धा , वीर्य , स्मृति , समाधि एवं प्रज्ञा का सहारा लेना चाहिये । श्रद्धा से अर्थ है – मन में विश्वास का होना । अगर योग में श्रद्धा न हो , तो योग का असर कम होता है । उसके लिये पहले श्रद्धा बनानी चाहिये । वीर्य का अर्थ मन एवं शरीर के सामर्थ्य से है । सामर्थ्य न हो तो यौगिक क्रियायें नहीं किये जा सकते है । स्मृति से बौद्धिक शक्ति का सामर्थ्य पता चलता है । अगर योग की कोई पद्धति पढी गयी हो तो उसका दिन – रात स्मरण रखना आवश्यक है । समाधि में चित्त से लेकर मन , बुद्धि , प्राण एवं शरीर एक हो जाते है । इस एकता में साक्षात ईश्वर का अनुभव होता है । प्रज्ञा से अर्थ एक ऐसे बुद्धि से है , जिसमें ईश्वर का ज्ञान समाहित हो गया हो । योग से विवेक उत्पन्न होता है । विवेक से ईश्वर ज्ञान होता है , जिससे प्रज्ञा उत्पन्न होता है ।

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